Tuesday 12 December 2017

रोज़ का सफरनामा

जैसे जैसे मेट्रो रोज़ाना की ज़िंदगी में हमारा हिस्सा बन रही है, वहीं ज़िन्दगी के इस सफरनुमा दौर में कुछ ऐसा भी है, जो प्लान नही किया गया था। समझाता हूँ --

मुम्बई में जब लोकल ट्रेन स्टेशन से बाहर कदम पड़ते हैं तो आदमी अपनी रोज़ की जरूरत का हर सामान पटरी विक्रेताओं खरीद सकता है। वड़ा पाव, पर्स, बेल्ट, जूते जाने क्या क्या नही बिकता।

कनॉट प्लेस या राजीव चौक के स्टेशन पर उतरो तो टी शर्ट, चश्मे, जैकेट, मोबाइल एक्सेसरीज आपको अपनी और खिंचती हैं।

पटेल चौक स्टेशन के पास रोज़मर्रा की छोटी छोटी चीज़े जैसे जुराब, रुमाल, स्क्रू ड्राइवर सेट वगैरह बिकते मिलते हैं।

जनता की ज़िंदगी का हिस्सा हैं ये सब। और एक अनकहा सा जुड़ाव होता है आम आदमी का इनसे रोज़ाना के सफर के दौरान।

सिगरेट की टपरी, पानी की मशीन, चाय की दुकान, पान वाला, नीम्बू पानी शिकंजवी एक सुख का अहसास कराते हैं इस सफर में।

दुनिया का हर शहर जहां पर्यटक जाते है, इस एक बुनियादी ज़रूरत का सबूत मिलता है।

लेकिन हम इसे प्लान नही करते। हमारे बनाये नक्शों में नही होता ये सब। प्रॉपर्टी डेवलपमेंट तो करेंगे लेकिन अपने वास्ते, लोगो के वास्ते नही। हमसे अच्छा एक पुलिस वाला है, लोगो की ज़रूरत समझता है। हफ्ता लेकर बैठा देता है पटरी पर इन लोगों को। ज़रूरी तो है, पर क्यों नही प्लान किया इसे कोई नही जानना चाहता। साइट कॉन्टेस्ट, अर्बन फैब्रिक, लैंडस्केप जोन जैसे बड़े बड़े शब्द तो हैं लेकिन ये छोटी छोटी ज़रूरत की जगह नही है।

कभी कोई गांव से अपने बच्चे को मेट्रो दिखाने लाये और बच्चे को छोटा सा चाबी से चलने वाला खिलौना दिला सके एक नियोजित वेंडिंग जोन से तो शायद वो प्लानिंग सार्थक होगी।

गौर कीजियेगा ।।